पानी की शुद्धता को लेकर मेरे साथ साथ जनमानस के मन में कई प्रश्न हैं । सर्वप्रथम हमें यह समझना है की शुद्धता का जल से क्या संबंध है ।
प्राचीन काल में मनुष्य ने अपने जीवन को सुचारू बनाने के लिए, नदियों के आसपास कुटुंब व गांव बसाने प्रारंभ किए, ताकि पानी का बहता हुआ स्रोत उनके जीवन को यथार्थ प्रदान करे । कालांतर में कुआं व नलकूप के द्वारा भूजल का प्रयोग व संग्रहण के लिए मिट्टी व तामृ पात्रों का प्रयोग हुआ, राजसी व्यवस्थाओं में चांदी के पात्रों का प्रयोग भी हुआ ।
परंतु आधुनिक युग के तथाकथित आविष्कार एवं विज्ञापन, समस्त मानव जाति के लिए अभिशाप सिद्ध हो रहे हैं । सर्वप्रथम अल्ट्रावायलेट (पराबैंगनी) किरणों द्वारा पानी का उपचार, तत्पश्चात रिवर्स ऑस्मोसिस ओजनीकरण व विभिन्न हानिकारक रसायनों के प्रयोग ने, मानव जाति की प्रतिरोधक क्षमता को लगभग नगण्य कर दिया है, इसी का एक दुष़परिणाम विश्व को कोरोनावायरस ( कोविद-१९) महामारी एवं उसके खिलाफ जीवन की जंग में हारने स्वरूप देखा जा रहा है ।
फलस्वरूप यह समय पुनर्विचार करने का है कि, जल की शुद्धता बनाए रखने हेतु प्रबंध एवं सामाजिक चेतना का पुन:आरंभ किया जाए।
जिसके लिए बिन्दुवार पृबंध किया जाना आवश्यक है :-
१. नदी के बहते हुए जल की गुणवत्ता को बनाए रखना ताकि पेयजल के लिए सीधे प्रयोग किया जा सके ।
२. भूजल का दोहन केवल पेयजल के लिए किया जाए एवं उसे भंडार ना किया जाए, यदि किसी कारण सूक्ष्म समय के लिए भंडारण करना पड़े तो भंडारण कक्ष, शुद्ध तांबे से बनाए जाएं अन्यथा उसका उपयोग अन्य कार्यों जैसे स्नान, वस्त्र व कृषि उपयोग ही हो ।
३. उपयोग के बाद निष्कासित जल का पुनर्चक्रण तालाब विधि द्वारा करके पुनः प्रयोग किया जाना आवश्यक है किसी भी प्रकार के निष्कासित जल को नदी अथवा भूजल में डालना, प्रकृति की हत्या का अपराध माना जाए, व दंड के कड़े प्रावधान किए जाएं।
४. गांव या आधुनिक शहर बसाने के लिए प्राधिकरण या सक्षम अभिकरण को पेयजल की उपलब्धता के अनुसार ही आबादी की व्यवस्था देनी चाहिए, ताकि जल भार के कारण प्रकृति का अति दोहन न होने पाए।
तथा, जल शोधन के परिष्करण की अन्य तकनीकों के आविष्कार व उनके अनुपालन हेतु शासन को व्यवस्था करनी होगी।
५. जनमानस को, भूजल कोे बिना भंडारण के प्रयोग (अथवा मिट्टी के तांबे के पात्रों का प्रयोग) करना चाहिए ताकि मानव जीवन की क्षमता व प्रतिरोध शक्ति लगातार अनुशासित रहे ।
६. भूजल में किसी भी प्रकार के विषाणु को फिटकरी के प्रयोग द्वारा निष्क्रिय किया जा सकता है जबकि,पेयजल का एल्कलाइन व मृदु होना आवश्यक है, साथ ही भोजन भी अल्कलाइन होना चाहिए ।
७. पेयजल के लिए उपलब्ध भूजल या नदी जल को कप़ड़छन + कार्बन व चूना पत्थर के संपर्क द्वारा भी परिष्कृत किया जा सकता है, यदि भूजल स्वाद मैं खारा नहीं है, या 600 टीडीएस तक है तो रिवर्स ऑस्मोसिस विधि का उपयोग अनावश्यक है, केवल पराबैंगनी विकिरण ही उपयुक्त है ।
८. अधिक लवण की स्थिति में उपलब्ध जल को 140 फुट की ऊंचाई से टकराते हुए जलप्रपात की तरह गिराकर व वाष्प को एकत्रित करके पेयजल में परिवर्तित किया जा सकता है, साथ ही, अन्य विद्युत विधियों का प्रयोग भी आवश्यकता अनुसार, बिना किसी रासायनिक लवण के , किया जा सकता है जैसे कि एल्कलाइन जल बनाने व बड़े स्तर पर संक्रमण निस्तारण के लिए आधुनिक व प्रकृति संरक्षित विद्युत विधियों का उपयोग किया जा रहा है ।
अंत मैं, मेरा सुझाव है कि, प्रकृति के निकट ही, सर्वसमर्थ समाधान है ।
उपरोक्त विचार, लेखक के अनुभव पर आधारित है,
लेखक : संजीव कुमार सिंघल
गौ.बु. नगर, उ. प्र.
२३/०४/२०२०
समय : ००.४५ A.M.
सम्पर्क : ssinghal2312@gmail.com
प्राचीन काल में मनुष्य ने अपने जीवन को सुचारू बनाने के लिए, नदियों के आसपास कुटुंब व गांव बसाने प्रारंभ किए, ताकि पानी का बहता हुआ स्रोत उनके जीवन को यथार्थ प्रदान करे । कालांतर में कुआं व नलकूप के द्वारा भूजल का प्रयोग व संग्रहण के लिए मिट्टी व तामृ पात्रों का प्रयोग हुआ, राजसी व्यवस्थाओं में चांदी के पात्रों का प्रयोग भी हुआ ।
परंतु आधुनिक युग के तथाकथित आविष्कार एवं विज्ञापन, समस्त मानव जाति के लिए अभिशाप सिद्ध हो रहे हैं । सर्वप्रथम अल्ट्रावायलेट (पराबैंगनी) किरणों द्वारा पानी का उपचार, तत्पश्चात रिवर्स ऑस्मोसिस ओजनीकरण व विभिन्न हानिकारक रसायनों के प्रयोग ने, मानव जाति की प्रतिरोधक क्षमता को लगभग नगण्य कर दिया है, इसी का एक दुष़परिणाम विश्व को कोरोनावायरस ( कोविद-१९) महामारी एवं उसके खिलाफ जीवन की जंग में हारने स्वरूप देखा जा रहा है ।
फलस्वरूप यह समय पुनर्विचार करने का है कि, जल की शुद्धता बनाए रखने हेतु प्रबंध एवं सामाजिक चेतना का पुन:आरंभ किया जाए।
जिसके लिए बिन्दुवार पृबंध किया जाना आवश्यक है :-
१. नदी के बहते हुए जल की गुणवत्ता को बनाए रखना ताकि पेयजल के लिए सीधे प्रयोग किया जा सके ।
२. भूजल का दोहन केवल पेयजल के लिए किया जाए एवं उसे भंडार ना किया जाए, यदि किसी कारण सूक्ष्म समय के लिए भंडारण करना पड़े तो भंडारण कक्ष, शुद्ध तांबे से बनाए जाएं अन्यथा उसका उपयोग अन्य कार्यों जैसे स्नान, वस्त्र व कृषि उपयोग ही हो ।
३. उपयोग के बाद निष्कासित जल का पुनर्चक्रण तालाब विधि द्वारा करके पुनः प्रयोग किया जाना आवश्यक है किसी भी प्रकार के निष्कासित जल को नदी अथवा भूजल में डालना, प्रकृति की हत्या का अपराध माना जाए, व दंड के कड़े प्रावधान किए जाएं।
४. गांव या आधुनिक शहर बसाने के लिए प्राधिकरण या सक्षम अभिकरण को पेयजल की उपलब्धता के अनुसार ही आबादी की व्यवस्था देनी चाहिए, ताकि जल भार के कारण प्रकृति का अति दोहन न होने पाए।
तथा, जल शोधन के परिष्करण की अन्य तकनीकों के आविष्कार व उनके अनुपालन हेतु शासन को व्यवस्था करनी होगी।
५. जनमानस को, भूजल कोे बिना भंडारण के प्रयोग (अथवा मिट्टी के तांबे के पात्रों का प्रयोग) करना चाहिए ताकि मानव जीवन की क्षमता व प्रतिरोध शक्ति लगातार अनुशासित रहे ।
६. भूजल में किसी भी प्रकार के विषाणु को फिटकरी के प्रयोग द्वारा निष्क्रिय किया जा सकता है जबकि,पेयजल का एल्कलाइन व मृदु होना आवश्यक है, साथ ही भोजन भी अल्कलाइन होना चाहिए ।
७. पेयजल के लिए उपलब्ध भूजल या नदी जल को कप़ड़छन + कार्बन व चूना पत्थर के संपर्क द्वारा भी परिष्कृत किया जा सकता है, यदि भूजल स्वाद मैं खारा नहीं है, या 600 टीडीएस तक है तो रिवर्स ऑस्मोसिस विधि का उपयोग अनावश्यक है, केवल पराबैंगनी विकिरण ही उपयुक्त है ।
८. अधिक लवण की स्थिति में उपलब्ध जल को 140 फुट की ऊंचाई से टकराते हुए जलप्रपात की तरह गिराकर व वाष्प को एकत्रित करके पेयजल में परिवर्तित किया जा सकता है, साथ ही, अन्य विद्युत विधियों का प्रयोग भी आवश्यकता अनुसार, बिना किसी रासायनिक लवण के , किया जा सकता है जैसे कि एल्कलाइन जल बनाने व बड़े स्तर पर संक्रमण निस्तारण के लिए आधुनिक व प्रकृति संरक्षित विद्युत विधियों का उपयोग किया जा रहा है ।
अंत मैं, मेरा सुझाव है कि, प्रकृति के निकट ही, सर्वसमर्थ समाधान है ।
उपरोक्त विचार, लेखक के अनुभव पर आधारित है,
लेखक : संजीव कुमार सिंघल
गौ.बु. नगर, उ. प्र.
२३/०४/२०२०
समय : ००.४५ A.M.
सम्पर्क : ssinghal2312@gmail.com